Friday, November 21, 2008

ऐसा क्यों होता है?

जब धरती पर पहले इंसान ने जन्म लिया तो वोह न तो कोई अक्षर जानता था, न कोई शब्द, न कोई भाषा और न ही उन्हें व्यक्त करने का कोई उपाय। कुछ भी नही जानता था वोह। धीरे-धीरे उसके जैसे और लोग धरती पर आए। उनोने स्वयं में दर्द, खुशी, क्रोध, प्यार, अपनापन आदि भावों को महसूस किया जो पहले से प्रकृति द्वारा उन्हें प्रदत्त थे। परन्तु भाषा के अभाव में वे ये भी नही जानते थे की इन भावों को एक-दूसरे को व्यक्त भी किया जा सकता है। काफ़ी समय तक किसी ख़ास परिस्थिति में चेहरे के खास हाव-भाव् ही एक-दूसरे के लिए भाषा का काम करते रहे। समयांतर में कुछ इशारे बने, कुछ बिना अक्षरों और शब्दों के मुह से निकली तरह-तरह की आवाजें और हाव-भाव काफी दिनों तक भाषा के रूप में प्रयोग होते रहे।
समय की गति जारी रहीऔर अपने साथ मनुष्य के बुद्धि-विवेक को भी गतिशील करती जा रही थी। वोह वक्त भी आया जब मानव मात्र बे अपने भावाभिव्यक्ति के लिए एक भाषा का इजाद किया। अब मनुष्य एक-दूसरे को अपने आंतरिक भावनाओं, अपने भावो, अपने दुःख-दर्द, खुशी आदि को शब्दों में बता सकता था। फिर आवश्यकता प्रतीत हुई एक सभ्यता की जब लोगो ने सोचा की जब सभी को दर्द एक सा ही होता है, सुख की अनुभूति सभी को एक सी ही होती है और सभी अपने सुख दुःख में एक-दूसरे का आत्मिक लगाव चाहते हैं तो क्यों न एक ऐसी व्यवस्था बनाएं जिसमे हर व्यक्ति जीवन भर अकेलापन न महसूस करे। इसी आवश्यकता के परिणामस्वरूप शनैः-शनैः आज तक का समय व्यतीत हो गया और आज हम देखते है की हम सभी इंसानों को एक सी शिक्षा दी जाती है। सभी इंसानों का दुःख-दर्द एक सा ही होता है। इंसान जैसे जैसे बड़ा होता जाता है, जीवन को और गहराई से समझता जाता है और हर व्यक्ति यही कहता सुना जाता है की जीवन का अन्तिम लख्या म्रत्यु ही है। इस थोडी सी आयु में जीवन को ऐसे जिया जाए जिससे हमें कभी अकेलेपन की अनुभूति न हो।
अगर सभी में इंसान मतके आन्तरिक भाव एक से ही हैं तो यह उसी तरह से है जैसे आप पानी को लोटे, गिलास, थाली, कटोरी आदि किसी भी बर्तन में रख दीजिये, पानी के आधारभूत लक्षण नही बदल सकते हैं। ठीक उसी प्रकार इंसान किसी भी जाती, धर्म या वर्ण आदि में जन्म ले ले, गोरा, काला या सावला किसी भी रंग का हो, कोई भी भाषा बोलने वाला हो, इंसान की आधारभूत भावनाएं, उसके अंतस्थल में छुपी संवेदनाएं, उसके शरीर में घुले प्राक्रतिक तत्व सभी कुछ एक जैसे ही हैं फिर आख़िर आज:-
"क्यों कोई भी दो व्यक्ति पूरी तरह से एक जैसा नही सोचते हैं???"
"क्यों दुनिया के किन्ही भी दो व्यक्तियों की प्रत्येक बात पर सोच एक jaisi नही होती है???"
"क्यों बहुत सी बातें शब्दों से जादा आंखों या चेहरे के हाव भाव से अच्छे ढंग से व्यक्त हो जाती हैं फिर भी लोग उन्हें शब्दों में सुनना चाहते हैं???"
"क्यों कुछ जीवन के कुछ अकाट्य सत्यों को मुह से बोल देने पर उनका प्रभाव कम या उल्टा पड़ जाता है???"
आपके उत्तरों की प्रतीक्षा में..................

मनीष दीक्षित......

3 comments:

  1. Sir Aapne question to bada achcha kiya hai. Main bhi kahphi dino se aisi hi uljhan me hoon.
    Ab dekhta hoo buddhijiviyon ke kya reply milte hain?

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  2. अन्‍य सभी जीव जंतुओं और पा्रणियों में एकमात्र मनुष्‍य ही ऐसा जीव है , जिसकी यह विशेषता है कि सभी मनुष्‍य होते हुए भी बिल्‍कुल अलग अलग बीज हैं। आज मानव ने जो इतनी तरक्‍की की है , इसका कारण भी यही है। यदि जानवरों की तरह ही सभी मनुष्‍य एक सा सोंचते , एक सा खाते , एक सा पहनते और एक सा जीवन जीते , तो क्‍या जीवनस्‍तर में इतना बडा परिवर्तन संभव था ?

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  3. इंसान को अभी बहुत कुछ जानना बाकी है... और ये लगता भी नहीं कि वो आने वाले लाख-दस लाख साल में भी जान पाएगा...

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